Ustad Bismillah Khan: उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को आज बनारस की गलियों सहित देश का कोना-कोना याद कर रहा है। उनकी शहनाई की आवाज़ को भारत हर दिन सुनता है। शहनाई के शहंशाह के दिल में बनारस बसता था। उनका कहना था कि ”चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर हो या बालाजी मंदिर या फिर गंगा घाट, यहां शहनाई बजाने मे एक अलग ही सुकून मिलता है।” साथ ही उनका यह भी कहना था कि अगर किसी को सुरीला बनना है तो बनारस चला आए और गंगा जी के किनारे बैठ जाए, क्योंकि बनारस के नाम में ‘रस’ आता है।
संगीत ही उनका धर्म था
बिस्मिल्लाह खान के लिए संगीत ही उनका धर्म था। वह गंगा किनारे बैठकर घंटों रियाज करते थे। बाबा विश्वनाथ के मंदिर में जाकर भी वह शहनाई बजाते थे। जब भी देश में कोई उत्सव मनाया जाता था, खान साहब की शहनाई ज़रूर बजती थी। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, तो इस खास मौके पर लाल किले से शहनाई बजाकर बिस्मिल्लाह खान ने उसे और भी ज्यादा खूबसूरत बना दिया। यही नहीं देश के पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी उन्होंने अपनी शहनाई से समां बांध दिया। बिस्मिल्लाह खान साहब ने देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में अपनी शहनाई की मधुर तान से भारत का परिचय कराया।
यह गुण उन्हें उनके मामा से विरासत में मिली थी
बिस्मिल्लाह खान जब मात्र 6 साल के थे, तभी से उन्होंने शहनाई की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी। यह गुण उन्हें उनके मामा से विरासत में मिली थी। दरअसल, उनके मामा अली बख्स काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाया करते थे। बिस्मिल्लाह खान ने 1937 में पहली बार ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में शहनाई बजाई थी, इसके बाद दुनियाभर के लोग इनके मुरीद हो गए।
अमेरिका में बसने का ऑफर मिला था
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बिस्मिल्लाह खान को अमेरिका में बसने का ऑफर मिला था, लेकिन उन्होंने उस ऑफर को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि ”अमेरिका में आप मेरी गंगा कहां से लाओगे?
Shashi Rai