21 मई 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई। वहीं जून 1991 में जब चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस ने कुल 244 सीटों पर जीत हासिल किया था। यानी कांग्रेस की सरकार बनना तय थी। वहीं राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने राजनीति से दूरी बना ली। ऐसे में पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री की तलाश शुरू हो गई। पार्टी की पहली पसंद शंकरदयाल शर्मा थे, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री का पद लेने से इंकार कर दिया। जिसके बाद पीवी नरसिम्हा राव का नाम सुझाया गया, जिन पर पार्टी के भीतर सहमति बन गई।
1991 में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरसिम्हा राव कई मंत्रालयों के मंत्री रह चुके थे। जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और विदेश मंत्रालय, लेकिन वित्त मंत्रालय में अनुभव उनको नहीं था। वहीं प्रधानमंत्री बनने से दो दिन पहले कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा ने उन्हें 8 पेज का एक नोट सौंपा था, जिसमें बताया गया था कि भारत की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है।
ऐसे में नरसिम्हा राव ने अपने सलाहकार पीसी अलेक्जेंडर से पूछा कि क्या आप वित्त मंत्री के लिए ऐसे व्यक्ति का नाम सुझा सकते हैं, जिसकी इंटरनेशनल लेवल पर स्वीकार्यता हो। तब अलेक्जेंडर ने उन्हें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के गवर्नर रह चुके और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक आईजी पटेल का नाम सुझाया। लेकिन आईजी पटेल से जब संपर्क किया गया तो उन्होंने दिल्ली आने से मना कर दिया, क्योंकि उनकी मां उस वक्त बीमार थीं, इस वजह से वो वडोदरा में थे।
फिर अलेक्जेंडर ने ही डॉ. मनमोहन सिंह का नाम सुझाया और नरसिम्हा राव के शपथ ग्रहण से एक दिन पहले मनमोहन सिंह को फोन आया। फोन पर जब उन्हें बताया गया तब उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया और मज़ाक समझकर टाल दिया। फिर दूसरे दिन शपथ ग्रहण से मात्र 3 घंटे पहले UGC के ऑफिस में मनमोहन सिंह के पास नरसिम्हा राव का फोन आया कि मैं आपको अपना वित्तमंत्री बनाना चाहता हूं। अगर हम सफल हुए तो हम दोनों को इसका श्रेय मिलेगा, लेकिन अगर हमारे हाथ असफलता लगी तो इसके जिम्मेदार आप होंगे।
मनमोहन सिंह को लेकर नरसिम्हा राव के फैसले ने भारतीय अर्थव्यवस्था में नई जान फूंक दी। दरअसल, 1990-91 के गल्फ वॉर से बढ़ी कच्चे तेल की कीमतों ने भारत की मुश्किलें बढ़ा दी थी । भारत का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घटने लगा, क्योंकि उसे अचानक अपने इंपोर्ट के लिए बहुत ज्यादा खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ा। IMF से उधार लेने के बाद भी 1991 तक भारत के पास 1 अरब डॉलर से भी कम का विदेशी भंडार बचा था, जो करीब तीन हफ्ते के इंपोर्ट को पूरा करने के लिए ही पर्याप्त था।
संकट के बीच, नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री रहें मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की नीति का ऐलान किया। मनमोहन सिंह ने 24 जुलाई, 1991 को अपना पहला बजट पेश किया था। 1991 में नई आर्थिक रणनीति को अपनाने के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी बदलाव आया। डॉ. सिंह ने बजट में लाइसेंस राज को खत्म करते हुए, कंपनियों को कई तरह के प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया था।
आयात-निर्यात नीति बदली गई थी, जिसका उद्देश्य आयात लाइसेंसिंग में ढील और निर्यात को बढ़ावा देना था। यही नहीं, विदेशी निवेश के रास्ते खोल दिए गए। सॉफ्टवेयर निर्यात के लिए आयकर अधिनियम की धारा 80 Hhc के तहत टैक्स में छूट की घोषणा भी की।
इस महत्वपूर्ण बजट को आधुनिक भारत के इतिहास में सबसे बड़ी घटनाओं में से एक माना जाता है। डॉ. सिंह की आर्थिक नीतियों का ही कमाल था कि दो साल यानी 1993 में ही देश का विदेशी मुद्रा भंडार 1 अरब डॉलर से बढ़कर 10 अरब डॉलर हो गया। यही नहीं, 1998 में यह 290 अरब डॉलर तक पहुंच गया था।
Shashi Rai